खालिद हुसैन
करीब दो दशक पहले अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाली जम्मू कश्मीर की सबसे ताकतवर महिला नेता मेहबूबा मुफ़्ती को वक्त ने राजनीतिक जीवन के चौराहे पर खड़ा कर दिया है। यह उनके जीवन का अच्छा और बुरा दोनों तरह के वक्त का अहसास दिला रहा है। एक तरफ जहां मेहबूबा ने अपने जीवन के मार्गदर्शक और राजनीतिक गुरु मुफ़्ती मोहम्मद सईद को खोया है जो उनके पिता भी थे, वहीं यह फैसला भी लेना है जो मेहबूबा को एक बड़ा नेता बना सकता है या फिर वह राजनीति में इतिहास रच सकती हैं।
मेहबूबा के लिए इस वक्त राजनीति का सबसे बड़ा पद हासिल करना बहुत आसान है। उनकी एक हां उन्हें जम्मू कश्मीर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री का स्थान दिला सकता है। मगर ऐसा करना उनके लिए आसान भी नहीं क्योंकि कश्मीर की राजनीति एक साधारण राज्य की राजनीति नहीं और उनका दल पीडीपी कश्मीर केंद्रित है। उनके दल का भविष्य सुरक्षित रहे उसके लिए उन्हें केवल हां करने से काम नहीं चलेगा। मेहबूबा को इस वक्त थोड़ा जोखिम उठाने के साथ-साथ थोड़ी किस्मत की भी जरूरत है।
सवाल यह कि मेहबूबा के पास इस वक्त विकल्प क्या है जिनको अपनाकर वह अपने राजनीतिक जीवन को अपने गुरु के नक्शेकदम पर आगे बढ़ा सकती है। मेहबूबा के लिए यह बहुत मुश्किल नहीं कि मुफ़्ती मोहम्मद सईद को सही ठहराते हुए भाजपा के साथ हाथ मिलाकर मेहबूबा आगे बढ़े और राज्य के सबसे बड़े राजनीतिक पद मुख्यमंत्री की कुर्सी को संभाल लें। मगर ऐसा करने के लिए मेहबूबा चाहती हैं कि केंद्र कुछ ऐसा आश्वासन दे जिसे वह कश्मीर के लोगों को बताकर अपने वोट बैंक को संतुष्ट करके यह बता सके कि आखिर उसने भाजपा को ही क्यों चुना। मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने जब भाजपा से हाथ मिलाया था तब उन्होंने कई सपनों को भी बुना था मगर 10 महीनों के इस गठबंधन सरकार के शासनकाल में उन सपनों को हकीकत का स्थान नहीं मिला। इसलिए ताकत को अपनाने से पहले इस ताकत की कीमत तेह करना मेहबूबा के लिए ज़रूरी हो गया है। इसलिए मेहबूबा भी अपने पिता की तरह बातचीत को खींच रही है।
दरअसल यह रास्ता मेहबूबा के लिए कठिन और संघर्ष वाला है। वह इसलिए कि ताकत और शासन को ठुकराकर भाजपा के लिए दरवाज़ा बंद करते मेहबूबा यह भी नहीं कह सकती कि नार्थ पोल और साउथ पोल हकीकत में नहीं मिल सकते खासकर जम्मू कश्मीर की राजनीति में। इस गठबंधन में मेहबूबा को अपने पिता जो कि राजनीति के एक दिग्गज थे की तरह कई सवाल सहने पड़ेंगे। वो मुफ़्ती ही थे जो पिछले 10 महीनों में हुए कई हमलों को सह गये और शासन भी करते रहे। बाहर ही नहीं दल के अंदर से भी मुफ़्ती को विरोध का सामना करना पड़ा। मेहबूबा यह भी सोच रही हैं कि मुफ़्ती जो भारतीय राजनीति के स्तम्भ थे को ढेरों मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो कल राजनीति में आए और अब तक शासन से सीधे तौर पर बाहर रही मेहबूबा को क्या झेलना पड़ सकता है।
मेहबूबा अगर यहां भाजपा से मुंह मोड़कर कांग्रस से हाथ मिलाती है तो वह कांग्रेस से सहयोग लेकर शासन तो कर सकती है मगर भाजपा से नाता तोड़ने का मतलब राज्य को केंद्र से मिलाने वाले सहयोग को हासिल करने के लिए संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी। हालांकि कांग्रेस द्वारा पीडीपी को कई बार इशारा भी मिला है। सोनिया का खुद शोक व्यक्त करने के लिए कश्मीर आना, दिल्ली में सोनिया और आज़ाद का एक नहीं बल्कि कई बार मुफ़्ती का हाल पूछने अस्पताल जाना यह समझने के लिए काफी है कि अगर मेहबूबा चाहें तो पीडीपी के हाथ के साथ कांग्रेस हाथ मिला सकती है।
मेहबूबा एक मंझी हुई राजनीतिज्ञ की तरह ज़मीनी हकीकत को समझते हुए सब्र से काम ले रही हैं और अपने पिता की तरह लोगों में पहले यह साबित कर रही हैं कि राज्य में विकास के लिए भाजपा से हाथ मिलाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं। और दूसरी तरफ सब्र का असर भाजपा पर भी लागू कर बड़े गेम प्लान कर भाजपा के बड़े दिग्गज मोदी से लेकर अन्य नेताओं को मजबूर कर रही है कि वह मेहबूबा की शर्तों को मानें। इन शर्तों में अलगाववादियों से बातचीत, अनुच्छेद 370 पर चुप्पी जैसी शर्तें शामिल हैं। अगर ऐसा होता है तो पीडीपी कश्मीर में अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखने में सक्षम होगी मगर यह आसान नहीं क्योंकि भाजपा जम्मू कश्मीर में पहली बार मिले शासन को खोना नहीं चाहती। यह सच है मगर इसको वो इतने महंगे दामों पर खरीदना नहीं चाहेगी। अगर वो ऐसा करती है तो जम्मू जो उनका मुख्य राजनीतिक केंद्र है वहां अपनी पकड़ खो सकती है।
मेहबूबा यह भी जानती हैं कि पिछले दस महीनों के शासन में जम्मू कश्मीर में जो-जो मुद्दे उछले और उनपर राजनीति हुई चाहे वह अनुच्छेद 370 हो या बीफ या राज्य ध्वज उससे उसकी ज़मीन कश्मीर में हिल गई है। इसलिए भाजपा से फिर हाथ मिलाने जो तेह है उससे पहले मेहबूबा बड़े पैमाने पर भाजपा के दिग्गजों से आश्वासन चाहेगी। अब देखना यह है कि मेहबूबा कौन सा राजनीतिक दांव चलती हैं और कब तक सब्र उनका साथ देता है।